ख्वाहिशे आँखो पर बैठती है, धीरे धीरे आँखे उन्हे अंदर समेत लेती है, फिर सीप के अंदर मोती की तरह ख्वाब पलने लगते है. ऐसे ही कुछ मोती सरीखे खूबसूरत और काँच की मानिंद नाज़ुक ख्वाब वसंत शिवशंकर पादुकोण ने देखे थे. कुछ अपने लिए , कुछ ज़माने के लिए. अपने ख्वाब आँखो मे टूटे तो हर किर्च आँखो से दिल तक की हर धमनी काट गयी. लगभग एक सदी पहले जब बादल आसमान से मिलने घुमड़ घुमड़ के आते है और ऐसे गले लगते है कि स्नेह की धारा बहने लगती है, इसी भीगी जुलाई मे माँ के लिए खुशियो का वसंत लाने वाले वसंत शिव शंकर पादुकोण जन्म लेते है. बारीशो मे जन्म लेने वाले पानी से नही डरते, एक शाम घुटनो से जहान नाप लेने का ख़याल लिए वसंत पास के कूए मे गिर जाते है, घर के पंडित और गुरु जान बचाते है और नया नाम रखते है गुरु….गुरुदत्त. घुटनो से थिरकता अब गुरुदत्त दरिया के एक और शहर कोलकाता का हिस्सा हो जाता है. दरिया मे जब लहर उठती, गुरुदत्त का बदन ऐंठने लगता, लहर उतरती तो गुरुदत्त के पैर बदन से छलक कर थिरक उठते. अब गुरुदत्त को नृत्य का शौक लग गया था और जल्दी ही उनकी मुलाक़ात मशहूर नृत्य निर्देशक उदय शंकर से हुई. उनकी टोली मे शरीर इस कदर लचका कि कविता बन गया. अब गुरुदत्त उस शहर पहुचते हैं जिसने गुरुदत्त को बनाया भी, बिगाड़ा भी. मुंबई मे शुरुआती कुछ समय मे सहायक नृत्य निर्देशन के बाद उनकी मुलाक़ात देव आनंद से होती है. देव की नज़रे गुरुदत्त की मेघा, जुनून, काबिलियत, अदाएगी और मुख्त्लिफ अंदाज़ भाँप लेती है. दो दोस्त एक नये सफ़र की बाज़ी खेलते है और ये ‘बाज़ी’ उस दौर के बेहतरीन चाल होती है जो दोनो जीत जाते है. इस फिल्म ने शैडो लाइटिंग और अमेरिकन नोइर शृंखला मे नये प्रतिमान स्थापित किए. गुरुदत्त सिर्फ़ अपनी बात कहना नही चाहते थे, वो अपनी हर बात अपने अंदाज़ मे रचना चाहते है. अपनी एक और फिल्म’बाज़’ के लिए मुकम्मल अदाकार नही मिला तो ये जोखिम खुद के सर ले लिया. शर्मीला सा ये कलाकार रोशनी मिलते ही सूरजमुखी हो जाता और किरदार के दर्द, टूटन, मुस्कान,मोहब्बत, रकाबत को ऐसे पेश करता कि भाव उसके चेहरे पर आकर सुकून पा रहे हो. गुरुदत्त के गीले मन की कच्ची मिट्टी पर कुछ निशान बनने लगे थे. ये निशान अपनी आवाज़ से रूह मे उतरने वाली गीता रॉय के थे जो गुरु दत्त के हतप्रभ कर देने वाली प्रतिभा से मुतासिर होकर गीता दत्त हो गयी. लेकिन कलाकार दिल से बहुत प्यासा होता है, उसकी प्यास आम दरिया से नही बुझती. ये ज़ेहनी प्यास उसे भटकने पर मजबूर करती है, इस तलाश का ख़ात्मा वहीदा रहमान पर हुआ और ‘ प्यासा’ हिन्दुस्तान के हर ज़हीन के खुश्क गले की ज़रूरत बन गयी. अपनी पहचान को तड़पते एक शायर को बदनाम गली की साफ दिल औरत ने संभाला तो शायर की पुकार हर ओर गूँज उठी. फिल्म के अंत मे जब शायर दुनिया के मक्कारी से तंग होकर ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाय तो क्या हो’ कहता है तो अनूठी लाइटिंग से गुरुदत्त क्राइस्ट के क्रसिफाइड इमेज सरीखे अवतरित होते है. अपनी कलात्मक विलक्षणता के चरम पर गुरुदत्त ‘कागज के फूल मे पहुचते है जो एक निर्देशक और उसकी उसकी प्रेरणा के संबंधो की दास्तान है. ;वक़्त ने किया क्या हंसी सितम’ मे गुरुदत्त 2 बड़े शीशो और परावर्तित लाइट से जो पैदा करते है वो फक़त जादू ही हो सकता है. स्टूडियो के अंदर सन बीम ने मोहब्बत मे डूबे दो दिलो को बीच एक रेखा खींच दी, जो ना गुरुदत्त पार कर पाए, ना वहीदा से आगे बढ़ा गया. अपनी सबसे खूबसूरत कृति ‘कागज के फूल’ के ना चलने से गुरुदत्त उदास तो थे लेकिन घाव मोहब्बत के मुकम्मल ना होने से था. अब गुरुदत्त अपनी नाकामी और अधूरी प्यास शीशे के प्यालो मे डुबो देते. एक टूटती शाम मे अपने अज़ीज़ कैमेरामैन मूर्ति से बोल उठे’ मैं निर्देशक बन गया, अभिनेता बन गया, सब कुछ है लेकिन कुछ भी नही’
भारतीय सिनेमा को अपनी बेहद संवेदनशील कहानियो से रंगने वाले गुरु दत्त , जुलाई के इन्ही गीले गीले मौसम में ९ जुलाई को दुनिया में आये. जुलाई जब भी आती है, गुरु दत्त का सिनेमा और पतली मूंछो वाला बेहद संवेदनशील चेहरा , आँखों को रोशन करने लगता है.
©अविनाश त्रिपाठी